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Friday, October 14, 2022

सच्चे साधक को तप अग्नि में खुद को पकाना पड़ता है


सच्चा  एक बार एक महात्मा अपने शिष्यों को साधक के बारे में समझा रहे थे कि साधक तो पक्का ही बनना चाहिए, कच्चा साधक किस काम का? कच्चे-पक्के साधक की बात सुनकर शिष्य के मन में एक नया सवाल उठा। उसने पूछा आखिर, ‘गुरुजी, पक्का साधक कैसे बनते हैं?’ गुरुजी मुस्कुराए और बोले, ‘बेटा, हलवाई रोज कई तरह की मिठाइयां बनाता है, जो एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट होती हैं।’ शिष्य बोला, ‘पर साधक और हलवाई का क्या संबंध?’

गुरुजी बोले, ‘बेटा, साधक भी हलवाई की तरह ही है। जिस तरह हलवाई मिठाइयों को धीरे-धीरे पकाता है, वैसे ही साधक को भी साधना से स्वयं को पकाना पड़ता है। जिस तरह हलवे में सभी जरूरी चीजें डालने के बाद भी जब तक हलवा कच्चा है, उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, उसी तरह एक साधक चाहे जितना ज्ञान जुटा ले, कर्मकांड कर ले, जब तक वह स्मरण-भजन की अग्नि में नहीं तपता, तब तक वह कच्चा ही रहता है। जिस तरह मिठाई को अच्छे से पकाने के लिए लगातार उसका ध्यान रखना पड़ता है, उसी तरह साधक को भी अपनी चौकीदारी करनी चाहिए।’

गुरुजी बोले, ‘जब पकते-पकते हलवे में से खुशबू आने लगे और उसे खाने में आनंद मिले, तब उसे पका हुआ हलवा कहते हैं। उसी तरह जब साधना, साधक और साध्य, तीनों एक हो जाएं।

Saturday, September 12, 2020

मैंं कहता आंखन देखी

तुम्हारे जो भी तथाकथित गुरु हैं...वटवृक्ष हैं... उनके प्रति तुम्हारे जो विश्वास, श्रद्धाएं, निष्ठाएं और प्रतिबद्धताएं हैं, अत्यंत ही गहरे असुरक्षा के भाव और  भय से पैदा हुए हैं...तुम सदैव इस भय से ग्रस्त रहे हो कि, यदि तुमको किसी गुरु, वटवृक्ष की छत्र-छाया या सुरक्षा नहीं मिली तो तुम पनप नहीं पाओगे...तुम सुरक्षित नहीं रह सकोगे...तुमको क्या लगता है कि, जब भी कोई समस्याओं और मुसीबतों के झंझावत तुम्हारे ऊपर आएंगे, तो इन वटवृक्षों के सायों में तुम सुरक्षित रह पाओगे...ये वटवृक्ष तुमको बचा लेंगे...लेकिन यह तुम्हारी बड़ी भूल है...तुम यह नहीं जानते कि इन वटवृक्षों के नीचे कभी कोई दूसरा वृक्ष न हरा-भरा रह सका है...और न ही अपने मौलिक स्वरूप में पनप सका है... इन वटवृक्षों का अस्तित्व ही तुम्हारे सह अस्तित्व या कहो तुम्हारे नीचे खड़े होने पर टिका हुआ है...तुम्हारी अज्ञानता और इनके प्रति तुम्हारे अंधविश्वास से ही इनका अस्तित्व है...तुम्हारे अंधविश्वास की ताकत पाकर ही इन्होंने परम सत्ता के समानान्तर अपनी अलग सत्ता का निर्माण किया है...क्या तुम जानते हो कि, तुम जो हो, जिस दिन तुम यह जान लेते हो...अनुभूत कर लेते हो...उस दिन ही इन वटवृक्षों के प्रति तुम्हारे अंध विश्वासों, श्रद्धाओं और प्रतिबद्धताओं के शिखर स्वत: तुम्हारे भीतर से टूटकर बिखर जाते हैं...।

Friday, September 11, 2020

मैं कहता आंखन देखी

संसार में आंखों से दिखाई देनी वाली प्रत्येक चीज नाशवान है.. और ये तुम्हारी नहीं हैं...ये शरीर, ये परिवार, ये दौलत-शौहरत, ये मकान-दुकान...और जो भी तुमने पास संग्रहित किया हुआ है... ये सब तुम्हारे दुनिया में आने के पहले किसी और का था ...और दुनिया से विदा हो जाने के बाद निश्चित तौर पर किसी और का हो जाएगा...यह सब किराएदारी पर तुमको मिला है....यही नहीं,  इसके बाद भी हर वो चीज तुमको मिली,  जिसकी तुमने कुदरत से इच्छा-अनिच्छा में चाहत की...क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि, तुमने जब-जब जो-जो चाहा वो सब भी कुदरत ने देर-अबेर तुमको दिया..क्या यह भी सच नहीं है कि, तुमने कुदरत प्रदत्त और उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई हर चीज पर अपना नाम लिख लिया है...जो तुम्हारी कभी थी ही नहीं...उन्हें तुमने मेरा-मेरा कहना शुरू कर दिया...क्या तुमको इसका बोध है...?

Thursday, September 10, 2020

मैं कहता आंखन देखी


संसार में आंखों से दिखाई देनी वाली प्रत्येक चीज नाशवान है.. और ये तुम्हारी नहीं हैं...ये शरीर, ये परिवार, ये दौलत-शौहरत, ये मकान-दुकान...और जो भी तुमने पास संग्रहित किया हुआ है... ये सब तुम्हारे दुनिया में आने के पहले किसी और का था ...और दुनिया से विदा हो जाने के बाद निश्चित तौर पर किसी और का हो जाएगा...यह सब तुमको किराएदारी पर तुमको मिला है....यही नहीं,  इसके बाद भी हर वो चीज तुमको मिली,  जिसकी तुमने कुदरत से इच्छा-अनिच्छा में चाहत की...क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि, तुमने जब-जब जो-जो चाहा वो सब भी कुदरत ने देर-अबेर तुमको दिया..क्या यह भी सच नहीं है कि, तुमने कुदरत प्रदत्त और उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई हर चीज पर अपना नाम लिख लिया है...जो तुम्हारी कभी थी ही नहीं...उन्हें तुमने मेरा-मेरा कहना शुरू कर दिया...क्या तुमको इसका बोध है...?

Tuesday, September 8, 2020

लगोंट में अटका ब्रह्मचर्य

 मैं कहता आंखन देखी

संत-महात्माओं द्वारा हमेशा से यही कहा जा रहा है अपने भीतर की आध्यात्मिक सिद्धियां जगाना है.... ईश्वर को पाना है, तो ब्रह्मचर्य के साथ (स्त्री के बिना) जीने का अभ्यास करो...स्त्री से दूर रहो...उसका संसर्ग तो दूर, उसकी परछाई से भी फासला रखकर चलो...सामने से यदि कलावती-लीलावती आ रही है...तो सिर नीचे करके निकलो...कहीं जाओ  तो कसकर लंगोट बांधकर निकलो...वरना ब्रह्मचर्य भंग हो सकता है...इन्होंने जैसे ब्रह्मचर्य को जाना ही नहीं...इनके अनुसार ब्रह्मचर्य के मार्ग में कोई सबसे बड़ी बाधा है तो स्त्री है... स्त्री नरक का द्वार है... इन्होंने ब्रह्म को जैसे लगोंट में अटका दिया...।

 ब्रह्मचर्य दो शब्दों से मिलकर बना है...ब्रह्म+चर्य....ब्रह्म का अर्थ है ब्रह्म और चर्य का अर्थ है विचरना...ब्रह्म में विचरना...ब्रह्म के साथ जीना...उसके ही स्वध्याय में रहना...ऊर्जा के उर्ध्वगमन का अभ्यास करना...निश्चित  रूप से जिसने भी, स्त्री को नरक का द्वार कहा होगा, वह विच्छिप्त रहा होगा...क्योंकि स्त्री से कैसे भी मुक्त नहीं हुआ जा सकता है... स्त्री के बिना के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना भी नहीं हो सकती...इसका मतलब यही है कि, ब्रह्मचर्य के मार्ग में स्त्री नहीं, तुम्हारा चित्त सबसे बड़ी बाधा है...तुम्हारे दिमाग में गलत ढंग से  अनादि काल से यह भरा जा रहा है कि, स्त्री तुम्हारी बाधा है...ब्रह्मचर्य में रोड़ा है...जबकि सच तो यह कि स्त्री तो तुम्हारे प्रारब्ध ही सहायक और सहयोगी रही है...तुम जब स्त्री के साथ इस तरह से रहते हो, विचरते हो कि तुम ब्रह्म के साथ रह रहे हो...तो स्त्री तुम्हारी उद्धारक बन जाती है...वो  ब्रह्मचर्य कैसा, जो स्त्री से डरता हो...? स्त्री से दूर भागता हो...? स्त्री से भागना कायरता है...नपुसंकता है...क्योंकि तुम्हारी धमनियों में एक स्त्री (मां) का रक्त बह रहा है...तुम्हारे शरीर की मांस-मज्जाएं उसके ही रक्त से निर्मित हैं...ब्रह्म में रमना और विचरना है, तो उसे धारण करो...स्त्री को नकारा नहीं जा सकता...उसमें ब्रह्म को देखना ही तो ब्रह्मचर्य है...जब उसके संग ब्रह्म का अनुभव होने लगे...समझ लेना ब्रह्म की चर्या में तुम उतरने लगे हो...स्त्री नरक का द्वार नहीं, वह तुम्हारे आचरण की कसौटी है... उसकी धारणा में ही तुम्हारी उत्पत्ति निहित है...वह तुम्हारी मुक्ति की निष्पति है...।-महेश दीक्षित

Thursday, February 12, 2009

लक्ष्य क्या हो

जीवन में सरसता चाहिए तो बहना सीखो। आसमान पकड़ना है तो उड़ना सीखो। जो सुख चाहिए तो अपनी निजता में उतरना सीखो।

Saturday, January 10, 2009

जीवन में विश्राम कहाँ

यदि आप चाहें की जीवन में थोड़ा गेप मिल जाय विश्राम मिल जाय तो यह आपकी न समझी होगी। जीवन तो बहने का नाम है। रूक गए तो समझो सड़ गए, मर गए। नदी की तरह बहते रहना ही जीवन है।