सच्चा एक बार एक महात्मा अपने शिष्यों को साधक के बारे में समझा रहे थे कि साधक तो पक्का ही बनना चाहिए, कच्चा साधक किस काम का? कच्चे-पक्के साधक की बात सुनकर शिष्य के मन में एक नया सवाल उठा। उसने पूछा आखिर, ‘गुरुजी, पक्का साधक कैसे बनते हैं?’ गुरुजी मुस्कुराए और बोले, ‘बेटा, हलवाई रोज कई तरह की मिठाइयां बनाता है, जो एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट होती हैं।’ शिष्य बोला, ‘पर साधक और हलवाई का क्या संबंध?’
गुरुजी बोले, ‘बेटा, साधक भी हलवाई की तरह ही है। जिस तरह हलवाई मिठाइयों को धीरे-धीरे पकाता है, वैसे ही साधक को भी साधना से स्वयं को पकाना पड़ता है। जिस तरह हलवे में सभी जरूरी चीजें डालने के बाद भी जब तक हलवा कच्चा है, उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, उसी तरह एक साधक चाहे जितना ज्ञान जुटा ले, कर्मकांड कर ले, जब तक वह स्मरण-भजन की अग्नि में नहीं तपता, तब तक वह कच्चा ही रहता है। जिस तरह मिठाई को अच्छे से पकाने के लिए लगातार उसका ध्यान रखना पड़ता है, उसी तरह साधक को भी अपनी चौकीदारी करनी चाहिए।’
गुरुजी बोले, ‘जब पकते-पकते हलवे में से खुशबू आने लगे और उसे खाने में आनंद मिले, तब उसे पका हुआ हलवा कहते हैं। उसी तरह जब साधना, साधक और साध्य, तीनों एक हो जाएं।